बिखरता बालमन और बालपन

[ बाल - दिवस पर विशेष ]

नेहरू जी ने कहा था कि बच्चे बगिया की कली की तरह होते हैं , इसलिए इनकी देखभाल अच्छे तरीके से करनी चाहिए ताकि ये बच्चे हमारे आने वाले कल को , समाज और देश को ये सँवार सकें . अब इस परिदृश्य में यदि हम आकलन करें तो आज बालमन और बालपन दोनों ही विषम परिस्थिति से गुजर रहे हैं .. माँ के गोद से उतरकर बच्चा बचपन की भोली गलियों और गलतियों का आनंद लिए बगैर बड़ा बन जाता है या बड़ा बना दिया जाता है . अब इसके लिए ज़िम्मेवार तो कई चीजें हैं . पर जो सबसे पहले उनके बचपने को रोकती हैं वो है भविष्य का दवाब जो उन्हें नन्हें कदमों के साथ ही एक अच्छे और प्रसिद्ध स्कूल में नामांकन की प्रतिस्पर्द्धा में धकेल देता है अब ऐसी हाल में वो बच्चा अपने बचपन को भला कैसे महसूस कर पायेगा , या जी पायेगा , उसकी सारी शक्ति तो सारी ऊर्जा तो अपने नामांकन की चिंता और माता पिता के सपनों का बोझ ढ़ोने में लग जाती है . अच्छे स्कूल में दाखिल पा लेने वाले बच्चे पुरस्कृत होते हैं और जिन्हें दाखिल नहीं मिल पाता वे सब की नज़रों में तिरस्कृत समझे जाते हैं . चार - पाँच साल की उम्र में ही किसी बच्चे पर योग्य - या अयोग्य होने का ठप्पा लगा देना क्या यह एक बालमन के साथ ज्यादती नहीं है . मुझे अब भी याद है गाँवों का परिदृश्य जहाँ बच्चे ६ - ७ साल तक की आयु तक उन्मुक्त भाव से प्रकृति का रस पान करते हुए गायों के बीच से गुजरते थे , बैलगाड़ी में सवारी करते , गिल्ली - डंडा खेलते , नदियों में डुबकी लगाते , गोबर के उपले को तोड़ते , पेड़ों से आम और अमरुद तोड़कर खाते ,,,. सच पूछिये तो बचपन के ये पल बहुत कीमती होते हैं जो हमें जीवन के सुन्दर रूप से परिचित करते हैं . पर अब आज के युग में तो बालक मिट्टी छूने से घबराते हैं . कदाचित मॉडर्न मम्मी - पापा उनके मन में ये भय बिठा देते हैं कि मिट्टी छूने से उन्हें त्वचा सम्बन्धी बीमारी हो जायेगी या ऐसा करना उनके सामाजिक प्रतिष्ठा पर काला धब्बा लगा देगा . नतीजतन बच्चे के हाथ वीडियो गेम और कम्पयूटर पर थिरकते रहते हैं . एक मिथ्या दुनिया की सैर करते हुए ये बच्चे खिड़की के बाहर अँगड़ाई ले रही सुन्दर शाम की छटा से वंचित रह जाते हैं . छुट्टियों में अपने पैतृक गाँव जाने के बजाय हिल स्टेशन की तरफ उनका सफर तय होता है . बच्चे स्वाभाविकता और प्राकृतिक पहलू से दूर कर दिए जाते हैं . अब ऐसे में हमारे नौनिहाल एक कृत्रिम जीवन जीने के आदि हो जाते हैं . जिस बच्चे ने देश की मिट्टी को छुआ नहीं , पेड़ों और पत्तों को महसूसा नहीं , बगीचे और खेतों से जिसके पाँव गुजरे नहीं , वह भला देश या पर्यावरण से क्या प्रेम कर पायेगा .

इन सब के बाद भी जो कुछ मासूमियत बच्चे में बची रह जाती है उसे '' तकनीकी सुनामी '' ने तहस नहस कर डाला है . हर बच्चे के हाथ में मोबाईल और टैब का होना अब उतना ही आवश्यक है जितना भगवान हनुमान जी के हाथों में गदा का होना . इन उपकरणों के बिना आज की पीढ़ी खुद को बेबस , लाचार और दुखिया मानती है , मानो वनवास में सीता हो . . इस पीढ़ी को इस बात का इल्म ही नहीं है कि ये उपकरण किस प्रकार उन्हें सोच और विचार के लिहाज से पंगु बना रहे हैं . न ही माता - पिता उन्हें इन चीजों से एक '' उचित '' दूरी बना कर रखने की जानकारी दे पाते हैं . मोबाइल , फेसबुक और व्हाट्सएप्प की दुनिया उन्हें पूरी दुनिया से तो जोड़ रही है पर घर - परिवार और अपने समाज से बिलकुल अलग कर दे रही है . इलाहाबाद में अपने बीमार मित्र के फेसबुक वॉल पर '' गेट वेल सून '' लिखने वाले बच्चे को ये खबर नहीं रहती कि घर में भोजन पका रही माँ की तबीयत भी कुछ ठीक नहीं है . पर्व - त्यौहार , स्वतंत्रता दिवस , गणतंत्र दिवस को भी ये सोशल नेटवर्क साइट पर ही मनाते हैं . इन दिवसों के महत्व और पौराणिक आख्यानों से बिलकुल अनजान ये बच्चे जीवन और रिश्तों को उथले सतह पर ही जीते हैं और देखते हैं . किसी चीज की गहराई से इन्हें मतलब नहीं रह जाता . नतीजतन ये बच्चे बगीचे की कली की तरह नहीं बल्कि संवेदनशून्य एक मशीन की तरह बड़े हो रहे हैं . जो ऊँची शिक्षा प्राप्त कर एक दिन सात समंदर पार विदेश चले जायेगें . फिर वहाँ से अपने माता -पिता के लिए भेजें जाएँगे चेक पैसे और गिफ्ट , वो बच्चा शायद खुद नहीं आ पायेगा संवेदनाओं और संबंधों की खुशबू लिए , क्योंकि इन चीजों को उसने महसूसा ही नहीं अपने बचपन में .
इसलिए हमें अपने बच्चों से जुड़ना है तो पहले उनकी भावनाओं को समझना होगा उन्हें घर , गाँव और परिवार से जोड़ना होगा . उनके बालमन और बालपन को पूरा सम्मान देना होगा . इस वक्त उनकी जड़ों में यदि हम अपनेपन की खाद और प्रेम - स्नेह का जल डाल पायेंगे तभी ये बच्चे हमारे लिए , हमारे समाज और देश के भविष्य के लिए एक सुखद छाँव का निर्माण कर पाएँगे .

लेखक परिचय :
कल्याणी कबीर
फो.नं. ---
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