प्रहरी

मेरे तन को वसन नही‚
अम्बर साया बन जाता है।
धरती के पावन आँचल की‚
ममता निधि लुट जाता है।
जब हो जाये रात अँधेरी‚
तारे चाँद दीप्त चमकते हैं।
जाग्रत की कुछ बात तुच्छ‚
वो तो भर रात टहलते हैं।
हम कितने नादान सही‚
पाकर भी खोते चलते हैं।
दूजे को बढ़ते हँसते हम‚
अपना ही हाथ मसलते हैं।
जी करता है हँस लूँ थोड़ा‚
सब दुनिया मुस्काती है।
धरती-गगन मिलते हैं दो‚
बादल रिमझिम बरसते हैं।
ये नदियाँ गहरे सागर‚
जीवन-पथ मेरे बहते हैं।
बूँद-बूँद आँसू के जल से‚
यौवन सागर ये भरते हैं।
अधर छलकते मदिरा ले‚
मुस्काती माया की रेखा।
इन नादानों को‚ करीब से‚
जीवन पथ पर नंगा देखा।


लेखक परिचय :
राघव शर्मा
फो.नं. -09415972035
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